Monday, December 30, 2013

कितने रियल है ये रियल्टी शो

गौहर खान विजेता बिग बॉस - 7  
अभी - अभी ही ख़तम हुआ है रियल्टी शो बिग बॉस।  दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय था यह शो हालांकि कई बार यह विवाद में भी फंसा।  सलमान का बिग बॉस के प्रतियोगियों को लताड़ना।  कभी गलती पर  और कभी बेवजह।  कई बार उन पर पक्षपाती होने का आरोप भी लगा. लेकिन यहाँ हम  चर्चा  कर रहे हैं इस रियल्टी शो के रियल होने की।
कितना रियल था यह शो इस बार, २८ दिसम्बर को ख़तम हुआ यह  शो . जबकि २८ दिसम्बर से २ दिन पहले यानि २६ दिसम्बर को ही समाचार पत्रों में छप   गया था कि गौहर खान इस कार्यक्रम की विजेता हैं. हाथ में ट्रॉफी लिये गौहर की फ़ोटो भी लगभग सभी सोशल साइट्स आसानी से दिखाई दे रही थी. फिर भी जो दर्शक अंजान थे कि यह शो रियल नही है वोट करते रहे अपने प्रिय प्रतियोगियों को जिताने के लिये। दर्शकों को क्यों नही रोका गया। 
 इसके अलावा फायनल में जो भी डान्स परफोर्मेन्स थी उसमें भी बिग बॉस के घर के अंदर के लोग बाहर के लोगों के साथ डान्स कर रहे थे जैसे अरमान --तनीषा। कुशाल - गौहर , एंडी - अज़ाज़ खान और संग्राम। इतने सारे डांसर के साथ इन प्रतियोगियों के डांस कर रहे थे तो सोचिये कितने लोग बिग बॉस के घर के अंदर थे।
   
जब यह शो रियल हैं ही नही तो दर्शकों को  बेवकूफ बनाने की क्या कोई ख़ास वजह।  या सिर्फ पैसा कमाना ही उनका मकसद है।           
तो शो शुरू होने से पहले ही बयान जारी कर देना चाहिये कि," हालांकि यह कार्यक्रम एक सच्चा कार्यक्रम है लेकिन सच्चाई से इसका कोई भी सरोकार नही है.अगर दर्शक सच समझ कर खुद मूर्ख बने तो यह हमारी जिम्मेदारी नही है. "   

Tuesday, December 10, 2013

तनीषा ये क्या किया तुमने

तनीषा मुखर्जी यानि अपने जमाने की लोकप्रिय अभिनेत्री तनुजा की छोटी बेटी, जिसकी बड़ी बहन है काजोल और जीजा है अजय देवगन। तनीषा बिग बॉस - ७ की प्रतियोगी हैं अब जबकि बिग बॉस ख़तम होने में बहुत ही कम वक्त बचा है फिर भी तनीषा की चर्चा करनी ही होगी। तनीषा को अभिनय के सफ़र में कोई ख़ास सफलता नही मिली। उन्होंने अपनी फ़िल्मी कैरियर शुरू किया फ़िल्म "शि" , इसके बाद कुछ २ - ४ छोटी मोटी फ़िल्में की।  इनकी सबसे ज्यादा चर्चा हुई उदय चोपड़ा के साथ की गयी फ़िल्म "नील एन निक्की " के लिये।  इस फ़िल्म में तनीषा ने भरपूर अंग प्रदर्शन किया लेकिन नतीज़ा रहा ज़ीरो।  हाँ उदय और तनीषा के रोमांस के किस्से खूब हुए।  इस फ़िल्म के अलावा इन्होने बंगाली , मराठी ,तमिल और तेलुगु भाषा की भी एक एक फ़िल्म भी की। 

बिग बॉस में जब तनीषा आयी तब सभी दर्शकों को वो बहुत पसंद आयी लेकिन धीरे - धीरे उनमें बदलाव आने शुरू हो गए और इसके साथ ही दर्शक उन्हें नापसंद करने लगे।  ऐसा नही था कि पहले दर्शक उनके बहुत बड़े प्रशंसक थे कि उन्होंने शानदार फ़िल्में की  हों लेकिन उन्हें "बिग बॉस " जैसा प्लेट फॉर्म मिला था अपनी एक अलग छवि बनाने का , अपनी बहन और माँ से अलग, लेकिन वो तो पता नही क्या करने लगी।  सलमान ने भी उन्हें कहा कि बिग बॉस के कैमरे घर में सब जगह है अरमान और तनीषा प्लीज बी केयर फुल।  

किसी को प्यार करना , किसी के करीब जाना कोई भी बुराई नहीं लेकिन फिर भी सबका अपना -- अपना दिमाग और सोच होती है तभी इंसान का अपना अलग व्यक्तित्व बनता है लेकिन तनीषा ने तो जैसे अपना दिमाग खर्च करना ही बंद कर दिया जो अरमान करेगा वो भी वही करेगी। अपने लिये वो कम लड़ी जबकि अरमान के लिये वो ज्यादा लड़ती हुई दिखाई दी.  


समझ नही आता उन्हें क्या हुआ ? एक आत्म निर्भर महिला के रूप में अपनी छवि बनाने के बजाय इसमें वो अरमान की चमची ज्यादा नज़र आयीं। कभी तो अपनी समझ के मुताबिक निर्णय लेना सीखती तनीषा। जिससे उनकी माँ और बहन को भी गर्व होता। 

मनोरंजन से भरपूर है फ़िल्म आर राजकुमार


पिछले शुकवार यानि  ६ दिसंबर को  रिलीज़ हुई फ़िल्म "आर राजकुमार " . निर्देशक प्रभुदेवा व  शाहिद कपूर और सोनाक्षी सिन्हा की जोड़ी वाली इस वाली का  गीत -- संगीत खासा  लोकप्रिय हुआ  श्रोताओं  के बीच.  लेकिन समीक्षकों ने इस फ़िल्म की बहुत बखिया उधेड़ी और कईयों ने इस फ़िल्म को एक स्टार  भी नही देना उपयुक्त महसूस नही किया । कई अखबारों में इसे बकवास , कचरा तक कह दिया। एक्शन और संवाद  और डान्स से भरपूर इस फ़िल्म को क्यों समीक्षको ने नकारा मुझे समझ में नही आया जबकि ऐसी अनेकों फिल्मों को उन्होंने  २-  ३- ४ स्टार तक दिये थे
और उनकी तारीफों में अनेकों पुल भी बाँध दिये थे। अगर सच में समीक्षक बदल गए हैं तो अपना यह बदलाव आगे आने वाली फिल्मों के साथ भी रखेगें तो बहुत अच्छा होगा।


 क्या इस फ़िल्म में कोई खान नही था इसलिए या ऐसी समीक्षा करने की  कोई विशेष मजबूरी। इसी तरह कि अनेकों फिल्मों में १०० करोड़ से ऊपर की  कमाई भी की है. जबकि सबको मालूम है आज कल कौन सी फ़िल्म रिलीज़ हो रही है जिसमें किसी भी दर्शक को अपना दिमाग खर्च करने की  जरूरत होती है, आज कल रिलीज़ होने वाली अधिकतर फिल्मों को देखते समय अपना दिमाग घर ही छोड़ कर जाना सही रहता है।  फिर इस फ़िल्म के साथ दोहरा मापदंड क्यों अपनाया समीक्षको ने। 

भरपूर एक्शन , नाच - गाना और बहुत सारे कॉमेडी पंचेज भी थे इस फ़िल्म जिसे देख कर दर्शक बेहाल हुए जा रहे थे।

Friday, December 6, 2013

आखिरकार आदित्य नारायण को गीत ही गाना पड़ा



लोकप्रिय गायक उदित नारायण के बेटे आदित्य नारायण जिन्होंने बचपन में कई फिल्मों में गीतों को गाकर कई अवार्ड भी जीते साथ ही कई फिल्मों में अभिनय भी किया। बाल गायक के रूप में करीब १०० से भी अधिक फिल्मों में गाकर आदित्य ने सफलता पायी और कई बड़े बैनरो की फिल्मों में  बाल्य कलाकार के तौर  पर काम  भी किया। सन २००६ में लंदन के टेक म्यूजिक स्कूल से  संगीत की  ही पढ़ाई की  और वापस भारत आकर २००७ में सारेगामापा चेलेंज २००७ में बतौर होस्ट काम किया।  १९ साल के आदित्य इस कार्यक्रम के प्रसारण से घर - घर में लोकप्रिय हो गये. इसके बाद एक - एक करके उन्होंने २००८ में सारेगामापा लिटिल चैंप्स और  २००९ में सारेगामापा चेलेंज के एंकर बने। 

आदित्य के प्रशंसक उनकी आवाज़ को एक प्ले बैक सिंगर  के रूप में सुनना चाहते थे लेकिन सन २०१० में निर्देशक विक्रम भट्ट ने उन्हें अपनी फ़िल्म "शापित " में बतौर नायक उन्हें ले लिया और  सच में यह फ़िल्म उनके लिए एक श्राप साबित हुई इस फ़िल्म को कोई ख़ास सफलता भी नही मिली। बतौर हीरो तो आदित्य अफल रहे हाँ इस फ़िल्म के गीत उन्होंने लिखे कंपोज़ किये और गाये भी और इस फ़िल्म में क्षेत्र में उन्हें  सफलता भी मिली।   

२०१२ में आदित्य ने संजय लीला भंसाली के साथ  फ़िल्म "राम लीला" के लिए एक सहायक के रूप में काम करना शुरू किया। इस फ़िल्म में उन्होंने गीतों को गाया जो कि फ़िल्म के लिए उनके पिता उदित को गाना था लेकिन जब संजय ने "तड़ तड़" और ' इश्क्यूँ ढिश्क्यू " दोनों ही गीतों को सुना तो उन्हें बेहद पसंद आये और आदित्य ने भी कहा कि "मेरे ही गीतों को सर फ़िल्म में रखिये मैंने अपने पापा से बात कर लूँगा। "


आखिरकार क्यों आदित्य ने इतने साल लगा दिये फिल्मों में गीतों को गाने में. जबकि उनकी आवाज़ अच्छी है श्रोताओं को पसंद भी आती है यह बात फ़िल्म "रामलीला " के उनके गाये ये दो हिट गीत बताते हैं।  इस फ़िल्म के बाद भी उन्हें दूसरी फिल्मों के लिए गीत गाने चाहिये। क्योंकि वैसे भी उदित तो गीत कम ही गाते हैं और उनके प्रशंसक उन्हें सुनना  चाहते हैं इन दोनों ही गीतों को सुनकर कई बार लगता है कि उदित की ही आवाज़ है. 

Wednesday, December 4, 2013

फिर क्यों हम भी उन्हें देखें

हिंदी फिल्मों से जुड़े अभिनेता - अभिनेत्री, गायक - गायिका, निर्देशक अक्सर ही यह कहते हैं कि वो हिंदी फ़िल्में नही देखते क्योंकि अपने ही साथ काम करने वाले अभिनेता - अभिनेत्रियों से हम  क्या सीख सकते हैं जबकि हॉलीवुड की फ़िल्में देख कर वहाँ के कलाकारों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं. पिछले दिनों करीना कपूर का यह बयान आया कि "बहुत दिनों से उन्होंने कोई भी हिंदी फ़िल्म नही देखी यहाँ तक की 'बर्फी' फ़िल्म भी नही देखी जिसमें अभिनेता रणवीर कपूर के अभिनय की बहुत तारीफ हुई थी। हिंदी फ़िल्में इसलिए नही देखी क्योंकि सैफ अली का कहना है कि हिंदी फिल्मों से हम क्या सीख सकते है? "
इसी तरह शाहरुख़ खान भी कहते है कि वो खुद की भी कोई फ़िल्म नही देखते यहाँ तक की उन्होंने अपनी हिट फ़िल्म "कल हो न हो" अपनी बेटी के  साथ १० साल बाद देखी और इस फ़िल्म को देखकर हम खूब रोये भी." क्या सच में ऐसा सम्भव है कि कोई कलाकर अपनी फ़िल्म भी नही देखता। 
इसी तरह लोकप्रिय गायक कैलाश खेर भी फरमाते हैं,"मैं बॉलीवुड संगीत ज्यादा नही सुनता, हालांकि मैं भारतीय संगीत सुनता हूँ। " 
हिंदी फिल्मों में काम करते हैं वही से इनकी रोज़ी रोटी चलती है हिंदी फिल्मों में काम करने की वजह से वो देश विदेश में लोकप्रिय हैं।

उनकी फ़िल्में देख - देख कर दर्शक उनके दिवाने बनते हैं और ये लोग हिंदी फ़िल्में देखना तो दूर हिंदी बोलते भी नही. उनके लिए संवाद भी रोमन भाषा में लिखे जाते हैं. यह बात सिर्फ इन २ - ३ कलाकारों के बारें में नही है बल्कि अधिकतर हिंदी फिल्मों के सभी कलाकारों के बारे में हैं। 
जब वो खुद अपनी फ़िल्में नही देखते , संगीत नही सुनते तो कहीं ऐसा न हो उनके प्रशंसक उनकी बात मानकर ऐसा ही न करने लगे , सोचो अगर ऐसा हुआ तो क्या होगा ?

पाकिस्तान में अब हिंदी फ़िल्में नहीं

पिछले दिनों रिलीज़ हुई फ़िल्म "बुलेट राजा " पाकिस्तान में प्रदर्शित नही हो सकी क्योंकि पाकिस्तान कोर्ट ने वहाँ पर भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन पर रोक लगा दी है. अब कोई भी हिंदी फ़िल्म वहाँ के दर्शक नही देख सकेगें। जबकि पाकिस्तान में भारतीय फ़िल्में, गीत - संगीत और टी वी धारावाहिकों की लोकप्रियता हद से ज्यादा है दर्शकों के बीच। पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों में रोक की वजह से वहाँ के दर्शक खुश नही हैं. 
क्यों हमेशा पाकिस्तान ऐसा करता है क्यों हम नहीं पाकिस्तान के कलाकारों को यहाँ आने पर रोक लगाते ? वहाँ के गायक, अभिनेता -- अभिनेत्री यहाँ भारत की फिल्मों में काम कर करके अपनी जिंदगी बसर कर रहे हैं।  
क्या भारत में उनसे बेहतर कलाकार भारतीय फ़िल्म निर्माताओं को नही मिलते ? कभी तो हमें भी पाकिस्तान को मुंह तोड़ जवाब देना चाहिये। ठीक है पाकिस्तान के लोगों का इसमें कोई भी दोष नही लेकिन आखिर हैं तो वो फिर भी उसी देश के।  
इसी तरह पिछले दिनों पाकिस्तान को तालिबान ने धमकी दी कि सचिन तेंदुलकर को पाकिस्तान टी वी में न दिखाये। तो क्या पाकिस्तान अब उसकी भी सुनेगा। 
वैसे तो हम सभी जानतें हैं पाकिस्तान का भारत के प्रति क्या रवैया है ?  फिर क्यों हम उसे उसकी औकात नही दिखाते कभी ? 

Tuesday, November 26, 2013

क्यों हुआ ऐसा

१६ मई २००८ को आरुषि की हत्या हुई और अब जाकर ५ सालों के बाद इस हत्याकांड के दोषी उसके ही मम्मी पापा ही हैं यह भी साफ़ साफ़ पता चल गया ।  क्यों इतने साल लगे इस केस की गुत्थी को सुलझने में जबकि देश में सबको ही पता था कि दोषी कौन है फिर भी पैसे के बल पर बचते रहे नुपुर और राजेश तलवार।  खैर सजा तो होनी ही थी और वो मिली चाहे उन दोनों ने कितना भी पैसा खिलाया हो.
लेकिन यहाँ मैं  आरुषि की हत्या और दोषियों के बारे में बात नही कर रही बल्कि उस सबके बारें में बात कर रही हूँ जो परिस्थितियाँ इसके लिए दोषी हैं क्यों हुआ ऐसा ? हम सभी के घर में बच्चे हैं, हम सभी अपने और अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए घर से बाहर निकल कर काम करते हैं. किसकी गलती है मम्मी पापा की ? या बेटी कि जो १४ साल की भी नही हुई थी या बदलते हुए चारों ओर माहौल की ? फोन , इंटरनेट पर आसानी से उपलब्ध  सब कुछ की जिससे देख कर बच्चे तो क्या बड़े भी बहक जाते हैं  या … …, कहने को तो बहुत कुछ है. 
अपनी छोटी से बच्ची को नौकर के साथ इस तरह देखकर किसी भी माँ या बाप का दिल दहल सकता है और गुस्से में ऐसा कदम उठ जाता है जो कि आरुषि के साथ हुआ। लेकिन हत्या ही कोई हल नही है. अगर पढ़े लिखे लोग ही इस तरह का व्यवहार करेगें तो दूसरे किसी से क्यों उम्मीद की  जा सकती है और क्या मिला हत्या से बेटी भी नही रही और खुद भी सज़ा भुगत रहे हैं।  
लोग कहेगें अच्छे संस्कार नही दिए माँ बाप ने तभी  ऐसा हुआ , क्या सच में ऐसा हुआ होगा कोई भी माँ अपनी बच्ची को ऐसे संस्कार देती है ? यह सब क्यों हुआ ? सोच - सोच कर दिल और दिमाग में क्यों अनेकों सवाल उठ रहे हैं ? बड़े हो रहे बच्चों को भी समझना चाहिए कि क्या गलत है क्या सही है अपने से बड़ों से बिना डरे सारी बातें पूछना चाहिये और माँ पापा को भी बड़े हो रहे बच्चों खुल कर सभी बातें करनी चाहिये। लोग कहते आज माँ बाप के पास समय नही है कि बच्चों से बात करने की ,लेकिन इसके साथ यह भी पूरी तरह सच है कि आज बच्चों के पास भी समय नही है अपने परिवार के साथ बात करने की।  इतनी सारी सोशल साइट्स है उन पर समय तो बिताते हैं अनजान लोगों से बातें करते हैं लेकिन अपने परिवार वालों के लिए समय नही है। 
तो यह कहना कि यह दोषी है या वह दोषी है बिलकुल ही गलत है सारा का सारा माहौल ही बदला हुआ है आज. हर चीज का सही वक्त होता है समय और उम्र  से पहले किसी भी बात कि जानकारी जरुरी नही कि आपके लिए सही हो।  महज़ शारीरिक आकर्षण में फंस कर बहुत कुछ खोना पड़ सकता है। 
वैसे भी आज हम जिस समय में रह रहे हैं इसमें किसी भी रिश्ते में कोई भी पवित्रता नही रह गयी है।  कितने ही घर वाले अपनी ही बच्चियों का शारीरिक शोषण करते हैं. कितने ही ऐसे समाचार सुनने को मिलते हैं जिससे मन तार - तार हो जाता है. 
हो सकता है बड़े हो रहे बच्चे और उनके माँ बाप दोनों ही आरुषि मर्डर केस से कुछ सीखे ?   

Thursday, August 29, 2013

नाबालिग


बालिग़ - नाबालिग की  चर्चा आज  आम हो गयी है  जिसे देखो आज वही इस बहस में उलझा  है।  पहले बालिग़ - नाबालिग का जिक्र शादी - विवाह और वोट को लेकर होता था लेकिन आज ख़ास तौर पर इस  शब्द का प्रयोग अपराधियों  के लिए हो रहा है। उन्हें सजा से बचाने  के लिए कभी उनके वकील या  परिवारजन यह कर उसे सज़ा से बचाते हैं कि, "यह नाबालिग है, अभी तो यह  बच्चा है । "

क्या सच में जो अपराधी बलात्कार या हत्या जैसा गंभीर अपराध करते हैं उन्हें नाबालिग कह कर बचाना चाहिए।  जब वो एक लड़की के साथ ऐसा दुष्कर्म करते हैं तब उन्हें अपनी उम्र का पता नही होता कि अभी तो वो बच्चे हैं उन्हें ऐसा करना तो क्या सोचना भी नही चाहिए। 

अगर अपराधी को नाबालिग कह कर  यूं ही बचाते रहे जैसा कि दिल्ली में दिसंबर में हुए जघन्य बलात्कार काण्ड के बाद हो रहा है या मुंबई में जो पिछले दिनों हुआ जिसमें अपराधियों को नाबालिग कहा  जा रहा है।  

अगर नाबालिग होने से उनका अपराध कम हो जाता है तो भविष्य में कहीं ऐसा न हो की अपराधी अपनी जेब में अपना जन्म प्रमाण पत्र रख न चलने लगे और शिकायत करने पर वो उसे दिखा कर अपना बचाव करने लगे।  

Friday, August 2, 2013

दाऊद के कितने रूप ?


हिंदी फिल्म निर्माताओं का सबसे प्रिय विषय रहा है दाऊद. हमेशा से ही उस पर फ़िल्में बनती रही हैं और सफल भी होती रही हैं. ठीक है शुरु में कुछ निर्देशकों ने उस पर फिल्मे बनायी लेकिन अब तो लगभग हर दूसरा निर्देशक उस पर फ़िल्में बना रहा है और कितने ही कलाकारों ने अब तक परदे पर दाऊद के चरित्र को जी लिया. यहाँ तक कि पिछले दिनों प्रदर्शित हुई फिल्म डी – डे  में अभिनेता ऋषि कपूर ने भी दाऊद के किरदार को अभिनीत कर लिया.

फिल्म ‘डी – डे’ से पहले अनेकों फ़िल्में आयी जिनमें दाऊद के जीवन को विस्तार से दिखाया गया. कुछ फिल्मों में उसके और छोटा राजन दोनों के गिरोह के बीच क्या और कैसे हुआ दिखाया गया, इसके अलावा कुछ फिल्मों में मैच फिक्सिंग, सन १९९३ में हुए मुंबई बम ब्लास्ट, हाजी मस्तान और उसके शुरूआती जिन्दगी को करीब से दिखाया.      

क्या अंडर वर्ल्ड पर फ़िल्में बनाना फिल्म निर्देशकों का प्रिय विषय बन गया है? या अभिनेता भी उस चरित्र को अभिनीत करने में खुद को गौरान्वित समझते हैं ? खैर जो कुछ भी हो अब जितनी फ़िल्में दाऊद को लेकर बनी और सफल व चर्चित भी रही. जानते हैं उनके बारे में --- सन २००२ में निर्देशक राम गोपाल वर्मा की फिल्म “कंपनी” में अभिनेता अजय देवगन ने दाऊद का चरित्र अभिनीत किया. २००५ में रणदीप हुडा ने फिल्म “डी कंपनी” में दाऊद का किरदार किया. २००८ में आयी फिल्म ‘जन्नत’ में इमरान हाश्मी दाऊद बने.  इसके अलावा २०१० में  आयी फिल्म “वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई” में  इमरान हाश्मी ने दाऊद का किरदार किया, अगले महीने यानि अगस्त में रिलीज़ होने वाली फिल्म ““वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई अगेन” में अक्षय कुमार ने दाऊद का किरदार निभाया है.                   
इन फिल्मों के अलावा भी ब्लैक फ्राइडे, शूट आउट एट वडाला, आदि कई फिल्मों में
दाऊद के चरित्र को अलग - अलग अभिनेताओं ने निभाया है.
  
अब देखते हैं कि कितने सालों तक यही सिलसिला चलता है ? कितनी नई फिल्मे दाऊद पर बनती हैं और कितने अन्य अभिनेता उसके किरदार को अभिनीत करते हैं ?

Monday, July 22, 2013

ऋषि कपूर का नया चेहरा


हिंदी फिल्मों में हमेशा ही  रोमांटिक भूमिकाये करने वाले अभिनेता  ऋषि कपूर ने क्या कभी सोचा होगा की वो कभी किसी फिल्म में दाऊद की भूमिका अभिनीत करेगें न तो शायद ही उन्होंने सोचा होगा और न ही किसी भी दर्शक के जेहन में ऐसा कोई भी ख्याल आया होगा. लेकिन पिछले दिनों आयी फिल्म 'डी -  डे 'म्रें  वो  दाऊ  बने थे.

 अपनी दूसरी पारी में ऋषि ने बहुत सारे ऐसे चरित्र अभिनीत किये हैं जो उन्होंने तब भी नही किये थे  जब वो मुख्य नायक बन कर आते थे. नयी हीरोइनों के लिए लकी साबित होने वाले ऋषि हमेशा ही नाच- गाने वाले रोल ही किया करते थे . यह भी बहुत ही आश्चर्य की बात है कि ५१ फिल्मों में मुख्य भूमिका अभिनीत करने वाले ऋषि ने पहली ही बार पिछले दिनी रिलीज़ हुई फिल्म 'औरंगजेब'  में  पुलिस  अधिकारी की भूमिका की. इसके अलावा उन्होंने  सन २०१२ में आयी फिल्म 'अग्निपथ' में राउफ लाला का किरदार भी अभिनीत किया. संजय दत्त भी इस फिल्म में खलनायक बने थे और ऋषि कपूर भी. बहुत ही उम्दा किरदार अभिनीत किया ऋषि ने, पर्दे पर उन्हें देख कर डर भी लगता था . इसके अलावा ऋषि ने फिल्म ' स्टूडेंट ऑफ़ द  ईयर' में  डीन का किरदार किया जो की 'गे' था .  

तो ६१ वर्ष की उम्र में ऋषि ने  दर्शकों के साथ - साथ उन निर्माता, निर्देशकों को भी दिखा दिया जो यह समझते थे  कि वो बस रोमांटिक किरदार ही अच्छे से कर सकते हैं.  

Monday, May 13, 2013

" गाली और युवा "




 अगर वो फिल्म देखें जिसमें ३ - ४ दोस्तों की कहानी हो तो उसमें गालियों की भरमार तो होगी ही इसके अलावा उन्हें ऐसा दिखाया जाता है कि दारु , सिगरेट और सेक्स के अलावा उन्हें कुछ भी नही चाहिये . क्या सच में आज के युवा ऐसे हैं जो की हमेशा बस सेक्स के बारे में सोचते हैं ? कैसे कब कोई लड़की उन्हें मिले और वो हो जाये बस शुरू  या फिल्मों में उन्हें ऐसा पेश किया जाता है . ऐसी फिल्मों को दर्शक पसंद भी बहुत करते हैं . क्या वजह है इसकी ? क्या सच में  द्विअर्थी संवाद और गाली आज के युवाओं की आम बोल चाल की भाषा हो गयी है .

पिछले दिनों आयी  फिल्म "गो गोवा गॉन"  में भी यही सब कुछ था, आने वाली फिल्म 'फुकरे ' में भी कुछ ऐसा है . इससे  पहले आयी फिल्म  देल्ही बेली  , प्यार का पंचनामा, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर , गोलमाल - ३ , क्या सुपर कूल हैं हम  और भी कई फ़िल्में हैं . किस किस का नाम ले अब तो हर दूसरी फिल्म में यही सब होता है .

वैसे भी आज कल हर हिंदी फिल्म में गाली होना बहुत ही जरुरी हो गया है ? ओंकारा हो गैंग्स ऑफ़ वासेपुर या ये साली जिन्दगी , इश्किया . गालियों की भरमार वाली फ़िल्में हैं बन रही हैं आज कल . इस बारे में निर्माता - निर्देशकों से पूछने पर वो कहते हैं कि इन फिल्मों में हमने  उस जगह की कहानी दिखाई है जिसमे गाली देना आम बात है तो हमने भी तो वैसा ही दिखाया है . 
गाली , द्विअर्थी संवाद , सेक्स आज फिल्म बेचने का फार्मूला हो गया है बस . 

Monday, May 6, 2013

"बॉम्बे टाकीज़ "


हाल ही में रिलीज़ हुई है फिल्म "बॉम्बे टाकीज़ " . बहुत चर्चा थी इस फिल्म कि तो सोचा क्यों न इस फिल्म को देखा जाये . बड़े - बड़े निर्देशकों की ४ अलग -- अलग कहानियाँ थी इसमें . लेकिन एक भी एक ऐसी कहानी नही थी जिसने  दर्शको के दिलों को छूया हो या उनके दिलों दिमाग पर छायी हो . फ़िल्मी दुनिया के जाने माने निर्देशकों के पास क्या इससे अच्छी कहानियाँ नहीं  थी हिंदी सिनेमा के १० ० साल के जश्न को  मनाने के लिए  . इससे बहुत बेहतर कहानियाँ हो सकती थी . अगर इन सभी कहानियों को हिंदी सिनेमा के १० ० साल के जश्न से अलग देखें तो यह ठीक हैं . जहाँ तक कलाकारों की बात करे तो सभी ने अच्छा काम किया है . नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी या विनीत कुमार की बात करे या रानी , रणदीप हुदा या बाल कलाकारों की बात करे तो सभी का काम अच्छा है .
 
लेकिन फिर वही बात आकर अटक जाती है किसी भी हिसाब  यह फिल्म "बॉम्बे टॉकीज़ "  १० ० साल के जश्न से मुताबिक़ नहीं थी . समझ नहीं आता क्या सोच कर यह फिल्म बनायी . खुद ही फिल्म बनाओ और खुद ही पीठ थपथपाने आदत सी बन गयी है फिल्म निर्माता और निर्देशकों की . सारे दर्शक जाये भाड़ में हम तो वहीँ बनायेगें जो हमे अच्छा लगेगा. शायद ऐसा ही कुछ सोचते होंगे यह लोग .

यह भी सुना जा रहा है कुछ कहानियाँ किसी दूसरे की थी जिन्हें निर्देशकों ने अपने नाम से बना दिया है . अब क्या सच्चाई है ? पता नहीं , खैर दर्शकों को पसंद नहीं  आयी यह "बॉम्बे टाकीज़ "

Monday, April 22, 2013

 फिर मन तार तार हुआ है एक ५ वर्षीय छोटी से बच्ची के साथ मानवता को कलंकित करने वाला जो अत्याचार हुआ उसे सुनकर . क्या उस वहशी का मन जरा भी नही कांपा होगा जब उसने उस बच्ची के साथ ऐसा दुष्कर्म किया होगा . किस मिट्टी का बना होगा वो वहशी दरिन्दा . क्या ऐसे वहशियों को नारी देह का अलावा कुछ नज़र नही आता . क्या सिर्फ उन्हें उनका जिस्म ही नज़र आता है जिसे वो तार -- तार कर देते  हैं ? क्या उस बच्ची ने उस वहशी से  बचने के कोई उपाय नही किये होंगे .सोचो जरा वह बेचारी छोटी सी बच्ची एक बंद कमरे में उससे बचने के लिए कैसे इधर उधर भाग रही होगी ? सोच कर ही रूह काँप जाती है .
कब तक आखिर कब तक ऐसे दरिंदे ऐसे ही खुला घूमते रहेगें . कब तक बच्चियाँ ऐसे ही जुल्मों का शिकार होती रहेगीं . 
उस बच्ची को तो इसका भान भी नही होगा की यह दरिन्दा क्या कर रहा है उसके साथ ? कितनी तकलीफ, कितना दर्द सहा होगा उस नन्ही सी जान ने , सोच कर ही कलेजा काँप जाता है और उसने तो यह सब सहा है जो यह भी नहीं जानती कि क्या हो रहा है उसके शरीर के साथ .

"वो छोटी सी  चिड़िया जिसके पर तार - तार कर दिये एक खूनी दरिन्दे ने   
कैसे अब वो उड़ना सीखेगी पल - पल  दर्द देगा उसे  बीता हुआ हर मंज़र " 

Monday, April 15, 2013

"बच्चियों का क्या कसूर "

 दिल्ली में दिसम्बर में हुए बलात्कार के दोषियों को अभी सज़ा हुई भी नही है लेकिन उस दुर्घटना पर जिस तरह लोगों ने अपना रोष दिखाया उसके बावजूद भी इस तरह की दुर्घटनाये रुकी नही हैं . विक्षिप्त लोगों की हिम्मत बढती ही जा रही  है . क्या होता है उनको कि वो ४ साल  ८  साल और १ ० साल की बच्चियों को देख कर कि वो इनको भी नही  छोड़ते . इतनी छोटी बच्चियों को तो पता भी  नही होता होगा कि उनके साथ क्या हो रहा है . इतनी छोटी बच्चियाँ जिनका शरीर भी पूरी तरह से विकसित नही हुआ . उनमें क्या दिखाई देता हैं उनको समझ नही आता  . बस ऐसे लोगों को तो  मतलब होता है अपने तन की  आग बुझाने से . उन्हें इस बात की जरा भी परवाह नही होती की उस छोटी बच्ची पर क्या बीत रही होगी ? क्या ऐसा करते समय उनके सामने उनकी बेटी या बहन के चेहरे उनकी आँखों के सामने नही आते ? जबकि अखबार में इस तरह का समाचार पढ़ते ही मन विचलित हो जाता है . 

 दिल्ली की बलात्कार की घटना के बाद कई पुरुषों ने अपनी मानसिकता को जाहिर करते हुए कई तरह के बयान भी दिये कि  लड़कियों को ऐसे कपड़े नही पहनने चाहिये , उन्हें इस तरह सजना संवरना नही चाहिये , रात  में घर से बाहर नही चाहिये . और भी पता नही क्या  क्या ? कोई कहता है  उन पर बंदिशे लगाओ , उन्हें मोबाइल नही देना , शादी १५ साल में कर  दो जिससे वो इन तरह की दुर्घटना से बची रहे . लेकिन इतनी छोटी बच्चियों के पास न तो फोन होता है और वो तो रात में अकेली घर से बाहर भी नही जाती और न ही वो ऐसा  भड़कीला मेकअप और बदन दिखाऊ कपडे पहनती हैं जिससे वो किसी भी पुरुष को ललचा सकें  .फिर क्यों उनके साथ इस तरह के हादसे होते हैं ? उनका क्या कसूर है ?
कसूर तो है उन मानसिक रूप से बीमार लोगों का , जिन्हें एक शरीर चाहिये अपनी कुत्सित इरादों को रूप देने के लिए .  
जिन पर अत्याचार हो उन पर ही पाबंदी लगाओ और अत्याचारी खुले सांड की तरह घूमे यह कहाँ का कायदा है .

Tuesday, April 9, 2013

क्या आदित्य रॉय कपूर और श्रद्धा कपूर ने भी आशिकी २ के लिए "यू ट्यूब " पर आडिशन दिया था


                           
'आशिकी २' नाम से जल्दी ही फिल्म आने वाली है और दर्शकों को बेसब्री से इंतज़ार भी है इस फिल्म का , क्योंकि यह फिल्म १९९० की हिट फिल्म "आशिकी " का रीमेक है . इस फिल्म में नायक और नायिका के चयन के लिए "यू ट्यूब " पर आडिशन भी लिए गए . हजारों की  संख्या में लोगों ने आडिशन भी दिये  लेकिन नतीजा क्या रहा जीरो ?  क्योकि इस फिल्म में तो आदित्य रॉय कपूर और श्रद्धा कपूर की जोड़ी है . यह दोनों कलाकार तो इस फिल्म से पहले भी कई फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं . क्या इन दोनों ने भी  "यू ट्यूब " पर आडिशन दिया था या इन दोनों का चयन पहले ही तय था . "यू ट्यूब " पर फिल्म के लिए कलाकारों का आडिशन सिर्फ पब्लिसिटी स्टंट तो नही था  या इन दोनों से बेहतरीन कलाकार निर्देशक मोहित सूरी की  मिले ही नहीं . 

खैर जो भी हो अब जल्दी ही यह फिल्म दर्शकों के सामने होगी . क्या यह फिल्म भी पहले बनी "आशिकी "  की तरह कामयाब होगी ? 
नही पता क्या  होगा इस फिल्म का , क्योंकि जहाँ तक  रीमेक फिल्मों की बात है दर्शकों ने इन फिल्मों को  ज्यादा नही सराहा है . इसका सबसे बेहतरीन नमूना है साजिद खान की "हिम्मतवाला" . 
पहले जब विशेष फिल्म्स  के बैनर में फ़िल्में बनती थी उनका एक क्लास होता था , बेहतरीन गीत -- संगीत होता था . इस फिल्म से कई लोगों ने अपना कैरियर भी शुरू किया जैसे राहुल रॉय , अनु अग्रवाल इसके साथ गीत -- संगीत में गायक  कुमार सानू और संगीतकार जोड़ी नदीम - श्रवण की लोकप्रियता भी इसी से शुरू हुई  लेकिन वैसा बेहतरीन गीत -- संगीत तो नदारद है इस फिल्म में .  इसके अलावा जिस तरह की फ़िल्में  आज कल इस बैनर में बनती हैं उनके क्या कहने ?
क्या हम उम्मीद करे की यह फिल्म भी पिछली फिल्म की तरह कामयाब होगी ? या ....................