हाल ही में रिलीज़ हुई है फिल्म "बॉम्बे टाकीज़ " . बहुत चर्चा थी इस फिल्म कि तो सोचा क्यों न इस फिल्म को देखा जाये . बड़े - बड़े निर्देशकों की ४ अलग -- अलग कहानियाँ थी इसमें . लेकिन एक भी एक ऐसी कहानी नही थी जिसने दर्शको के दिलों को छूया हो या उनके दिलों दिमाग पर छायी हो . फ़िल्मी दुनिया के जाने माने निर्देशकों के पास क्या इससे अच्छी कहानियाँ नहीं थी हिंदी सिनेमा के १० ० साल के जश्न को मनाने के लिए . इससे बहुत बेहतर कहानियाँ हो सकती थी . अगर इन सभी कहानियों को हिंदी सिनेमा के १० ० साल के जश्न से अलग देखें तो यह ठीक हैं . जहाँ तक कलाकारों की बात करे तो सभी ने अच्छा काम किया है . नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी या विनीत कुमार की बात करे या रानी , रणदीप हुदा या बाल कलाकारों की बात करे तो सभी का काम अच्छा है .
लेकिन फिर वही बात आकर अटक जाती है किसी भी हिसाब यह फिल्म "बॉम्बे टॉकीज़ " १० ० साल के जश्न से मुताबिक़ नहीं थी . समझ नहीं आता क्या सोच कर यह फिल्म बनायी . खुद ही फिल्म बनाओ और खुद ही पीठ थपथपाने आदत सी बन गयी है फिल्म निर्माता और निर्देशकों की . सारे दर्शक जाये भाड़ में हम तो वहीँ बनायेगें जो हमे अच्छा लगेगा. शायद ऐसा ही कुछ सोचते होंगे यह लोग .
यह भी सुना जा रहा है कुछ कहानियाँ किसी दूसरे की थी जिन्हें निर्देशकों ने अपने नाम से बना दिया है . अब क्या सच्चाई है ? पता नहीं , खैर दर्शकों को पसंद नहीं आयी यह "बॉम्बे टाकीज़ "
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