Tuesday, January 7, 2014

शोले थ्री डी में


कल फ़िल्म "शोले" देखी थ्री डी में. बहुत रोमांचित थी इस फ़िल्म के लिए. एक वजह तो इसकी यह थी कि यह फ़िल्म थ्री डी में थी और दूसरी मैं पहली ही बार बड़े परदे पर इसे देख रही थी क्योंकि १९७५ में जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई थी उस समय मैं छोटी थी हालांकि टी वी पर तो अनेकों बार देख चुकी थी   फ़िल्म शुरू होने वाली थी मैंने अपना चश्मा पहन लिया लेकिन थ्री डी जैसा इफ़ेक्ट नज़र ही नही आया यही हाल लगभग सारे दर्शकों का था कुछ अपना चश्मा साफ़ कर रहे थे , कुछ को लगा उनका चश्मा खराब है लेकिन किसी को कुछ समझ नही आया  ऐसे ही करीब १० मिनट तक चलता रहा  अचानक फ़िल्म रुक गयी क्या हो रहा है कुछ समझ में नही रहा था  अगर छोटे शहर के थियेटर में फ़िल्म लगी होती तो सीटियां और गालियाँ तक शुरू हो गयी होती लेकिन यहाँ कुछ हुआ नही  क्योंकि मुम्बई में तो लोग अच्छे संवादों पर तािलयाँ बजाना भी पसंद नही करते

१० मिनट बाद फिर से फ़िल्म शुरू हुई अबकी बार थ्री डी इफ़ेक्ट था लेकिन कुछ खास मजेदार नही था  फ़िल्म के कुछ दृश्यों में  थ्री डी इफेक्ट था और कुछ में नही था बिना चश्में के फ़िल्म ज्यादा अच्छी नज़र रही थी  जिन दृश्यों में थ्री डी की  जरुरत थी वहाँ तो थ्री डी इफ़ेक्ट था ही नही. कुछ भी हो "शोले" फ़िल्म का मज़ा आया  क्योंकि दर्शकों को फ़िल्म के सारे  संवाद  याद थे और सभी साथ में बोल भी रहे थे 
 फ़िल्म को थ्री डी इफ़ेक्ट देने का प्रयास सरहानीय है लेकिन नही भी करते तो भी क्या था ? फ़िल्म वैसे ही बहुत अच्छी है